रंगीला रसूल - पं, चमूपति एम्.ए

 



बहुत लोग नहीं जानते होंगे कि 'रंगीला रसूल' क्या है। जो थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है वो कुछ यूँ हैं -
१९२० में दो किताबें प्रकाशित हुईं एक का नाम था- ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’, और दूसरी थी – ‘बीसवीं सदी का महर्षि’। इन किताबों में श्रीकृष्ण और आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द के चरित्र की जिस अन्दाज़ से विवेचना की गई थी, तत्कालीन पंजाब के हिन्दुओं को वह बहुत नहीं जंची। जवाब में एक आर्यसमाजी विद्वान पंडित चमूपति ने पैग़म्बर मोहम्मद के चरित्र पर एक किताब लिखी जिसका शीर्षक रखा – रंगीला रसूल। इस किताब में मोहम्मद साहब के यौन-जीवन पर बात की गई थी। लेकिन चमूपति जी किताब को अपने नाम से छपवाने में डर रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि जान से जायं। एक नए प्रकाशक राजपाल ने चमूपति को गुमनामी का आश्वासन दिया और पुस्तक पर लेखक की जगह ‘दूध का दूध पानी का पानी’ नाम दे दिया, मगर अपना नाम-पता न छिपाया।
जैसी कि आशंका थी, १९२४ में किताब छपते ही बड़ा बलवा म़चा। राजपाल जी पर बहुत दबाव आया कि बतायें कि लेखक कौन है। लेकिन उन्होने अपना वादा न तोड़ा। लिहाज़ा ग़ुस्से का निशाना वही बने। पहला जानलेवा हमला उन पर १९२६ में एक पठान ने छुरे से किया। हमलावर को सात साल की जेल हुई और राजपाल जी तीन मास में चंगे हो गए। कुछ मास बाद एक और हमला हुआ, लेकिन इस बार हमलावर ने उनके धोखे में किसी और को निशाना बना लिया।
मामला गर्म हो गया और गाँधी जी को भी बयान देना पड़ा कि ‘एक साधारण तुच्छ पुस्तक-विक्रेता ने कुछ पैसे बनाने के लिए इस्लाम के पैग़म्बर की निन्दा की है, इसका प्रतिकार होना चाहिये।’ ख़िलाफ़त आन्दोलन वाले मौलाना मोहम्मद अली ने जामा मस्जिद से तक़रीर की कि काफ़िर राजपाल को छोड़ना नहीं, उसे सज़ा देनी चाहिये। दबाव में आकर ब्रिटिश सरकार ने राजपाल जी पर पांच साल तक मुक़द्दमा चलाया, निचली अदालत ने छै महीने की सज़ा सुनाई। लेकिन हाई कोर्ट ने उस सज़ा को रद्द किया और फ़ैसला दिया कि किताब में दिए सारे तथ्य सच्चे और ऐतिहासिक हैं। रिहा होने के बाद राजपाल जी*** ने कहा कि रंगीला रसूल से मुसलमानों का दिल दुखा है इसलिए वे उसका अगला संस्करण नहीं छापेंगे।
इस के बावजूद १९२९ में एक अन्य हमलावर ने उनकी जान ले ली।
राजपाल जी के हत्यारे इलम दीन को मौत की सज़ा हुई और उसे शहीद माना गया और बाद में गाज़ी का ख़िताब दिया गया। 

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